Tuesday, 1 November 2016
Friday, 14 October 2016
A hindi Poem(Sapne pure kr chodunga..)
:::::::::सपने पूरे कर छोडूंगा:::::::::
न बोलूँगा न देखूंगा दुनिया से नाता तोडूंगा
न रुकना है न थकना है सपने पूरे कर छोडूंगा ,
मैं जान फूंक दूंगा अब तो अपना रास्ता न मोडूँगा
सपने पूरे कर छोडूंगा सपने पूरे कर छोडूंगा।
टकराना है चट्टानों से भिड़ना है जा मैदानों में
जुड़ना है धरती से मुझे उड़ना है आसमानों में,
रोक सके जज़्बात मेरे अब दम है कहाँ तुफानो में
देर लगे चाहे मुझको राहों से मुख न मोडूँगा
सपने पूरे कर छोडूंगा सपने पूरे कर छोडूंगा।
है सब्र का फल मीठा लेकिन है सब्र कहाँ इंसानों में
हो लक्ष्य न जिसका जीवन में रहता है यो श्मशानो में ,
मेरा दर्द क्या जानेगा कोई है कई राज छुपे मुस्कानों में
टकराऊंगा हर दीवार से मैं पर हाथ कभी न जोडूंगा
सपने पूरे कर छोडूंगा सपने पूरे कर छोडूंगा।
जब तक पूरे हो न जाएँ है चैन कहाँ अरमानों को
लगे न फल जब पेड़ों में जाता है कौन बागानों को ,
मन में जब है ठान लिया रोकेगा कौन दीवानों को
रच के मैं इक पाठ नया पन्ना इतिहास में जोडूंगा
सपने पूरे कर छोडूंगा सपने पूरे कर छोडूंगा।
Sweet memory of friends..
जिनसे बिछड़े हुए मुझको मुद्दत हुयी है,
याद सीने से उनकी लगा लेने दे|
रो रो कर थक चुका हूँ मैं यादों में उनकी,
मेरी हाल पे उनको मुस्कुरा लेने दे|
अरे आँख में लाख सपने सजाये हुए था,
उनको खाबों पर पहरा लगा लेने दे|
मैनें अंधेरे में जलाया था जो उन्स दीपक,
वो दीपक भी उनको बुझा लेने दे|
हमेशा से अँगूली वो मुझपे उठाते रहे हैं,
इल्जामों को अब सिर उठा लेने दे|
उनकी सुनाना तो आदत सदा से रही है,
फिर आज भी उनको सुना लेने दे|
अरे ये अक्सर रूठ जाते हैं रूठने वाले,
इस बार भी तू उनको मना लेने दे|
हकीकत आज कल में पता चल जायेगी,
अभी आईना तू उनको दिखा लेने दे|
मैं अपनी मर्जी का मालिक सदा से रहा,
"पर" खुद का मुझको जला लेने दे|
आसमां ओढ़कर तो एक दिन सो जाऊँगा,
अभी नींद से कुछ को जगा लेने दे|
अरे सब कुछ मिला उस खुदा से है मुझको,
झूठी तारिफों में अब मुस्कुरा लेने दे|
जिनसे बिछड़े हुए मुझको मुद्दत हुयी है,
याद सीने से उनकी लगा लेने दे||
Tuesday, 11 October 2016
Monday, 10 October 2016
History Of Mau District
अमिला, जनपद मऊ उ०प्र० का एक छोटा शहर/कस्बा है| जो दो प्रमुख नाम से जाना जाता है -
१. अमिला रेलवे स्टेशन
२. अमिला बाजार
अमिला रेलवे स्टेशन के नाम से जो क्षेत्र प्रसिद्ध हैं उसका क्षेत्रफल काफी बड़ा है जबकि अमिला बाजार एक कस्बे के रूप में है जिसका क्षेत्रफल अमिला रेलवे स्टेशन के क्षेत्रफल के तुलना में कम है| यात्रियों में हमेशा अमिला रेलवे स्टेशन और अमिला बाजार को लेकर हमेशा दुविधा बनी रहती है|
इस दुविधा को दूर करने के लिए बता दूँ कि अमिला बाजार और अमिला रेलवे स्टेशन में महज तीन किलोमीटर का फासला है जो दोनों ही अलग - अलग है|
आईये एक नजर डालते है अपने जनपद के इतिहास पर...
देश: भारत
राज्य: उत्तर प्रदेश
क्षेत्रफल: 1713 किमी2 (661 वर्ग मील)
गुणक: 25°56′30″N 83°33′40″E / 25.94167, 83.56111
लिंगानुपात: 978 (2011 की जनगणना के अनुसार)
प्रमुख भाषा : हिन्दी, भोजपूरी व उर्दू.
विधानसभा में सीटें: घोसी, मधुबन, रसरा, मऊ सदर, मोहम्मदाबाद गोहाना
पूर्वी उत्तर प्रदेश का सुप्रसिद्ध एवं औद्योगिक दृष्टि से समुन्नत जनपद मऊ का इतिहास काफी पुराना है। रामायण एवं महाभारत कालीन सांस्कृतिक एवं पुरातत्विक अवशेष इस भू-भाग में यत्र-तत्र मिलते हैं। यद्यपि इस दिशा में वैज्ञानिक ढंग से शोध एवं उत्खनन के प्रयास नहीं किये गये ह, लेकिन भौगोलिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा किवंदतियों के आधार पर इसकी पुष्टि होती है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में महाराज दशरथ के शासनकाल में इस स्थान पर ऋषियों की तपोभूमि थी। इसी तमसा तट पर आदि कवि महर्षि वाल्मिकी का आश्रम था। यह तो निर्विवाद है कि वन यात्रा के समय प्रथम रात्रि तमसा तट पर श्री रामचन्द्र जी ने विश्राम किया था। मऊ का ज्ञात अभिलेखीय इतिहास लगभग 1500 वर्ष पुराना है, जब यह समूचा इलाका घोर घना जंगल था। यहाँ बहने वाली नदी के आस-पास जंगली व आदिवासी जातियाँ निवास करती थीं। यहाँ के सबसे पुराने निवासी नट माने जाते है। इस इलाके पर उन्हीं का शासन भी था।
तमसा तट पर हजारों वर्ष पूर्व बसे इस इलाके में सन् 1028 के आस-पास बाबा मलिक ताहिर का आगमन हुआ। वे एक सूफी संत थे और अपने भाई मलिक कासिम के साथ फौज की एक टुकड़ी के साथ यहाँ आये थे। इन लोगों का तत्कालीन हुक्मरा सैय्यद शालार मउऊद गाजी ने यहाँ इस इलाके पर कब्जा करने के लिये भेजा था। गाजी उस समय देश के अन्य हिस्सों पर कब्जा करता हुआ बाराबंकी में सतरिक तक आया था और वहाँ से उसने विभिन्न हिस्सों में कब्जे के लिये फौजी टुकडि़याँ भेजी थी।
उन दिनों इस क्षेत्र में मऊ नट का शासन था। कब्जे को लेकर मऊ नट एवं मलिक बंधुओं के बीज भीषण युद्ध हुआ,जिसमें मऊ नट का भंजन(मारा गया) हुआ और इस क्षेत्र को मऊ नट भंजन कहा गया जो कालान्तर में मऊनाथ भंजन हो गया। मऊनाथ भंजन के इस नामकरण को लेकर भी कई विचार है। कुछ विद्वान इसे संस्कृत शब्द ‘‘मयूर’’ का अपभ्रंश मानते ह, तो कुछ इसे टर्की भाषा का शब्द मानते हैं। टर्की में ‘‘मऊ’’ शब्द का अर्थ है पड़ाव या छावनी। मऊ नाम की कई जगहें ह, लेकिन उनके साथ कुछ न कुछ स्थानीय विशेषण लगे हुए हैं जैसे- फाफामऊ, मऊ आईमा, जाज मऊ, मऊनाथ भंजन आदि।
इस इलाके पर अपना वर्चस्व कायम करने के बाद बाबा मलिक ताहिर ने, आज जहाँ चैक है उसके उत्तर अपना केन्द्र बनाया जो आज भी मलिक ताहिरपुरा के नाम से जाना जाता हैै। इसी प्रकार उनके भाई मलिक कासिम ने चैक के दक्षिण को कासिमपुरा के नाम पर आबाद किया। मलिक ताहिर के फौज में शामिल ओहदेदार सिपाहियों ने कुछ-कुछ दूरी पर अपने-अपने नाम पर इलाकों को आबाद किया, जो आज भी हुसैनपुरा, बुलाकीपुरा, मिर्जाहादीपुरा, कासिमपुरा, मोहसिनपुरा, न्याज मुहम्मदपुरा, पठानटोला, आदि मुहल्लों के रूप में मौजूद हैं। मलिक भाइयों के आगमन के बाद यह इलाका धीरे-धीरे आबाद होता चला गया।
मौर्य एवं गुप्त वंश के राजाओं का दीप निर्वाण होने के पश्चात् मुगल शासन काल में यह स्थान जौनपुर राज्य अन्तर्गत था। इसके पूर्व 1540-1545 के मध्य इस क्षेत्र में तत्कालीन बादशाह शेरशाह सूरी का आगमन दो बार हुआ। शेरशाह सूरी दरगाह में रह रहे सूफी संत मीराशाह से मिलने आया था। उसकी बेटी महाबानो मीराशाह के सानिध्य में ही रह रही थी। मऊ नगर का पुराना पुल जो 1956 की बाढ़ में धाराशाही हो गया, शेरशाह सूरी द्वारा ही बनवाया गया था। बताते हैं कि पुल निर्माण में देर हो जाने के कारण ही शेरशाह सूरी द्वारा पेशावार से कोलकाता तक बनवाया गया ऐतिहासिक मार्ग (ग्राण्ट टंक रोड) इधर से नहीं गुजर सका।
सन् 1629 में मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासन काल में यह इलाका उनकी लड़की जहाँआरा को मिला। नगर के वर्तमान स्वरूप की नींव जहाँआरा के शासन काल में ही पड़ी। जहाँआरा बेगम ने यहाँ कटरा में अपना आवास एवं शाही मस्जिद का निर्माण करवाया और उसकी सुरक्षा के लिए उसे फौजी छावनी में तब्दील कर दिया गया। फौज को रहने के लिये बनाई गयी बैरकों के अवशेष आज भी विद्यमान है। जहाँआरा ने शाही कटरा क्षेत्र में 16 से 17 फीट नीचे भूमिगत सुरंग भी बनवाया था, जिसके अवशेष आज भी जमीन के अन्दर खुदाई के दौरान यत्र-तत्र पाये जाते हैं। गत् वर्ष स्थानीय नगर पालिका के कटरा क्षेत्र के जिन दो स्थानों पर नलकूप की बोरिंग करायी गयी वह 17-18 फीट जाकर फेल हो गयी। कटरे में शाही कोठरियां के दक्षिण-पश्चिम भाग में शाही परिवार का आवास था। यहाँ इमाम खाना का अवशेष पिछले दिनों तक था। शाही परिवार के साजो-सामान खच्चरों पर लाद कर यहाँ लाये गये थे। इन्हें लाने वालों की पीढ़ी आज भी यहाँ आबाद है और खच्चरों से ही ढुलाई का काम करके अपना जीवन यापन करती है। मुगल परिवार के साथ मजदूर, कारीगर व अन्य प्रशिक्षित श्रमिक भी आये थे, जिन्होंने यहाँ बुनाई कला को जन्म दिया। हथकरघा बुनाई से सम्बद्ध सूत कातने वाले लोग यहाँ गोरखपुर से आकर आबाद हुए। उनके रहने के लिए दो मुहल्ला कतुआपुरा पूरब व कतुआपुरा पश्चिम बनाया गया। बताते हैं कि भाई औरंगजेब के नाम पर बेगम जहाँआरा ने एक नया मुहल्ला औरंगाबाद आबाद किया तथा मऊनाथ भंजन का नाम अपने नाम पर जहाँनाबाद कर दिया, लेकिन यह नाम लोकप्रिय न हो सका और मऊनाथ भंजन उत्तरोत्तर प्रगति करता रहा।
उल्लेखनीय है कि जहाँआरा बेगम जब यहाँ नव निर्माण करा रही थी तो उनके साथ मजदूरों के अतिरिक्त जो लोग यहाँ आये उनमें अधिकांश दस्तकार थे और उनमें मुख्य वर्ग कपड़ा बनाने वालों का था जो यहाँ स्थायी रूप से आबाद हो गये। यहाँ आये अधिकांश दस्तकार ईरानी, अफगानी अथवा तुर्की मूल के थे। मऊ की स्थानीय भाषा जो अपने ढंग से निराली मानी जाती है, में अधिकांश शब्द फारसी, तुर्की व ईरानी भाषा के पाये जाते ह, जो आज अपना वास्तविक अर्थ खो चुके हैं।
अठ्ठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में जौनपुर के शासन से पृथक करके इस भू-भाग को आज़मगढ़ के राजा आजमशाह को दे दिया गया। आजमशाह और अजमत शाह दोन सगे भाई थे। आजमशाह ने आज़मगढ़ अजमत शाह ने अजमतगढ़ बसाया।
सन् 1801 में आज़मगढ़ और मऊनाथ भंजन ईस्ट इंडिया कम्पनी को मिले और यह क्षेत्र गोरखपुर जनपद में शामिल कर लिया गया। सन् 1932 में आज़मगढ़ स्वतन्त्र जिला बनाया गया जो स्वाधीनता के बाद 1988 तक कायम रहा। पूर्ववर्ती जिला आजमगढ़ जनपद में सबसे अधिक राजस्व की प्राप्ति मऊ से होती थी, किन्तु इसके विकास का प्रयास नगण्य था। जनपद मुख्यालय यहाँ से 45 कि0मी0 दूर होने के कारण यहाँ के लोगों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ता था। मऊ को जनपद बनाने की मांग कई वर्षों से होती रही जो अन्ततः 19 नवम्बर,1988 को पूरी हुई और प्रदेश के मानचित्र में एक अलग जनपद के रूप में मऊ का सृजन हुआ।
सन् 1988 में नया जनपद बनने के बाद इस भू-भाग का कायाकल्प हो गया तथा यह जनपद निन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है।
भौगोलिक दृश्टिकोण से मऊ:
पूर्वी उत्त प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक जनपद मऊ की भौगोलिक रूप से भी एक विशिष्ट पहचान है। गंगा-घाघरा दो-आब के समतल उपजाऊ मैदान में इस जनपद की स्थिति 83.17 डिग्री से 84.32 डिग्री पूर्वी देशान्तर और 24.47 से 26.17 डिग्री उत्तरी अक्षांश के मध्य स्थित है। यह उत्तर में घाघरा नदी, पूरब में बलिया, दक्षिण में गाजीपुर तथा पश्चिम में आज़मगढ़ जनपद से सीमांकित है। घाघरा नदी ही प्राकृतिक आधार है जो गोरखपुर और देवरिया जनपदों से मऊ को अलग करती है।
मऊ जनपद के मध्य गंगा-मैदान की भौगोलिक विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है। भौगोलिक विशेषताओं यथा स्थलाकृति एवं मिट्टी, अपवाह तंत्र एवं जल संसाधन, भौगोलिक संरचना, जलवायु जैव जगत आदि की विशेषताओं से परिचित होना आवश्यक है।
समतल मैदानी क्षेत्र होने के कारण स्थलाकृतियों में विशेष साम्य मिलता है। सिर्फ नदी प्रवाह क्षेत्रों में नदी में आत्मसात होने वाली छोटी-छोटी नलिकाओं से अपरदनात्मक स्थलाकृति में उबड़-खाबड़ धरातलीय स्वरूप उत्पन्न हुआ है। घाघरा और गंगा के अपवाह क्षेत्र में स्थित जनपद में धरातल का सामान्य ढाल दक्षिण-पूरब को है। जनपद के भू-भाग को दो प्राकृतिक विभागों में विभाजित कर सकते हैं, जिनके विभाजन का आधार बलिया व आज़मगढ़ को जोड़ने वाली पक्की सड़क है। सड़क के उत्तरी प्राकृतिक प्रदेश में कछारी तथा खादर मिट्टी और ऊँचे भाग पर बाँगर मिट्टी मिलती है। टौंस तथा उसकी सहायक छोटी सरयू के क्षेत्र में हल्की बलुई मिट्टी तथा जल जमाव वाले क्षेत्र में कछारी और भारी दोमट मिट्टी की सम्पन्नता मिलती है। दक्षिणी प्राकृतिक प्रदेश में नदी धारा का अभाव है, परिणामतः बाँगर क्षेत्र यत्र-तत्र कंकड़ और ऊसर से प्रभावित है। रानीपुर और परदहा दोनों विकास खण्ड जनपद के ऊसर भूमि को समेटे हुए हैं। उर्वरता की दृष्टि से कम महत्व का क्षेत्र बाँगर होता है।
नदियाँ जल संसाधन के प्रधान स्रोतों में से एक होती हैं। जनपद का प्रवाह तंत्र टौंस और उसकी सहायक छोटी सरयू निर्धारित करती है। जिनका प्रवाह उत्तर-पूरब से दक्षिण-पश्चिम की ओर है। छोटी सरयू घाघरा के लगभग समानान्तर प्रवाहित होकर मऊ से लगभग 05 किलोमीटर पश्चिम टौंस नदी में मिलती है। घाघरा और टौंस दोनों आगे गंगा की धारा में मिलती है। उनका मुहाना पास में होना तथा मैदान में ढाल मंद होने से बरसात के मौसम में नदी पाशर््िवक कटाव करती है, जिससे नदी मार्ग परिवर्तित होता रहता है। टौंस नदी के उत्तर कोपागंज विकास खण्ड में नदी से 02 किलोमीटर उत्तर खदान से बालू निकलना यह प्रमाणित करता है कि नदी कभी वहाँ से प्रवाहित होती थी जो मार्ग परिवर्तन के कारण दक्षिण खिसक आयी है। घोसी तहसील में बड़े-बड़े तालों का होना यह साबित करता है कि वे नदी के मार्ग में रहे हैं। घाघरा नदी की धारा का निरन्तर दाहिने किनारे को काटते रहना स्पष्ट करता है कि आगामी भौगार्भिक कालावधि में नदी और दाहिने किनारे खिसक कर बहेगी। जल संसाधन की दृष्टि से दोहरी घाट पम्प कैनाल व शारदा सहायक का भी विशेष महत्व है। नदी के अलावा घोसी, मोहम्मदाबाद व मधुबन तहसील में स्थित प्रमुख ताल सिंचाई, मत्स्य उत्पादन, पक्षी विहार तथा पर्यटन की दृष्टि से विशेष उपयोगी है। पकड़ी पिउवा ताल 1.70 किलोमीटर लम्बा और 32 किलोमीटर चैड़ा है। फतेहपुर ताल भी इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जनपद की भौगोलिक-संरचना, चतुर्थक कल्प भी निपेक्षित नदी जलोढ की सैण्ड सिल्ट और क्ले चट्टानों वाली है। बाढ़ क्षेत्र में नया और ऊँचे क्षेत्र में पुराना नदी जलोढ़ मिलता हे। जलोढ़ निक्षेप वाली संरचना खनिज संसाधनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। इसीलिये जनपद में खनिज सम्पन्नता नगण्य है। केवल पुराने जलोढ़ क्षेत्र में लाइम स्टोन एवं कांग्लोमेरेट मिलता है। भौगार्भिक जल स्तर की उपयोगिता अवसादी चट्टानों में सुनिश्चित होती है। जनपद का बंजर क्षेत्र इसका नमूना है, जहाँ 15मीटर की गहरायी पर पर्याप्त जल मिलता है, किन्तु नदी घाटियों में नये जलोढ़ के क्षेत्र में जल स्तर अधिक नीचे होता है। जल संसाधन का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। सन्तोष का विषय है कि हमारे जनपद में यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
जनपद में मानसूनी जलवायु मध्य गंगा मैदान की विशेषताओं को धारण करती है। यहाँ ग्रीष्म, वर्षा और शीत की मौसमी विशेषताएँ मिलती है। मध्य मार्च से मध्य जून तक ग्रीष्म ऋतु मध्य जून से सितम्बर तक दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी वर्षा और अक्टूबर से मध्य मार्च तक शीत ऋतु होती है। पिछले 50 वर्षों में वर्षा रिकार्ड का औसत घोसी में 1001.4मी0मी0 तथा मोहम्मदाबाद में 1004.4 मी0मी0 वार्षिक है। दक्षिणी-पश्चिमी हवाओं से क्षेत्र में होने वाली वर्षा किसानों को खुशहाल बनाती है। पूरे सूर्य वर्ष में वर्षा का विवरण 27 नक्षत्रों में आँकलित किया जाता है। जून से अक्टूबर के नक्षत्र को महानक्षत्र कहते हैं। छठाँ नक्षत्र आद्रा और तेरहवां हस्त(हथिया) वर्षा के लिए विशिष्ठ तथा कृषि के लिए अत्यधिक लाभकारी है। इस सम्बन्ध में एक कहावत हैः-
चढ़त बरसे आद्र्रा, उतरत बरसे हस्थ,
कितनो राजा दाण्डी ले, सुखी रहे गृहस्थ।।
आद्र्रा एवं हस्थ के मध्य क्रमशः पुनर्वस, पुख, असरेखा मघा, पूर्वा, उत्तरा और चित्रा वर्षा प्रदान करने में सक्षम होते हैं।
तापमान की दृष्टि से मई माह अधिकतम 41.4 सेन्टीग्रेट और न्यूनतम 26.1 सेन्टीग्रेट रहता है। यह सर्वाधिक गर्मी का महीना है। वर्षा का दिन भी ग्रीष्म काल ही अंग है, लेकिन दिन, रात की अपेक्षा कम गर्म होता है। अक्टूबर माह से रात ठण्डी और दिन गर्म होता है। नवम्बर माह से शीत ऋतु आरम्भ होती है। जाड़े में औसत अधिकतम तापमान 23.3 अंश सेन्टीग्रेट और न्यूनतम 9.7 अंश सेन्टीग्रेट ताप होता है। शीत ऋतु में पश्चिम से आने वाले चक्रवातों से बर्फीली ठण्डी हवायें ताप को शून्य अंश सेन्टीग्रेट तक पहुँचा देती है। परिणामस्वरूप कुहरा-कुहासा की प्राकृतिक विशिष्टता नजर आने लगती है। आपेक्षिक आर्दता जुलाई-अगस्त माह में 80 से 85 प्रतिशत तक तथा शुष्क महीनों में 40.5 प्रतिशत तक होती है।
वनस्पति की दृष्टि से मऊ जनपद को समृद्ध नहीं कहा जा सकता है। कभी का जंगल रहे इस क्षेत्र में वनस्पति का साम्राज्य विनष्ट हो चुका है। बढ़ती आबादी, कृषि भूमि के विस्तार की अवश्यकता, प्रकृति के प्रति उदासीनता ने क्षेत्र से वन और वनजीवन को समाप्त कर दिया है। घाघरा के दियारा क्षेत्रों में बड़े वृक्षों का एकदम अभाव है। केवल यत्र-तत्र बबूल और कँटीली झाडि़याँ ही देखने को मिलती है। बंजर क्षेत्र में नीम, आम, महुआ, पीपल, बरगद, शीशम, गूलर, पाकड़, जामुन और इमली के वृक्ष छिटपुट पाये जाते हैं। टौंस के उत्तरी क्षेत्र में ताड़ के पेड़ काफी पाये जाते हैं।
वन्य जीवों की दृष्टि से भी जनपद में कुछ उल्लेखनीय नहीं है। वन्य जीवों का अभाव वन के अभाव का प्रतिफल है। नदी के तटवर्ती इलाकों में नीलगायों की अधिकता है। बंदर यत्र-तत्र देखे जाते हैं। भेडि़या, सियार, लोमड़ी घाघरा के निचले इलाको में छिपे मिलते हैं। वन्य जीवों की अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे सांस्कृतिक भू-दृश्य का प्राकृतिक भूदृश्य पर प्रत्यारोपण है। बढ़ती जनसंख्या के लिए आवास व भोजन उपलब्ध कराने के लिए कृषिक्षेत्र का विस्तार तथा अन्य सांस्कृतिक क्रिया कलापों के विस्तर से क्षेत्र में अधिगम्यता बढ़ी है, फलस्वरूप जीव-जन्तुओं के सिर छुपाने की जगहों का अभाव हुआ और उनकी प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी। वन एवं वन्य जीवों का अभाव जनपद में पर्यायवरण असंतुलन को और प्रभावित करती है।
मऊ की संस्कृति में समाहित बुनाई कला:
मऊ और बुनाई कला एक दूसरे के पूरक हैं। मऊ आज उत्कर्ष एवं समृद्धि के जिस पायदान पर खड़ा है, उसका आधार बुनकर ही हैं। साडि़यों की बुनाई यहाँ के नागरिकों की पहचान बन चुकी है। बुनाई कला इस क्षेत्र के आबो-हवा में घुलकर यहाँ की संस्कृति में समाहित हो चुकी है।
इस क्षेत्र में बुनाई का उद्भव मुगल सम्राट जहाँगीर काल में हुआ। जैसे-जैसे समय बीतता गया यह कला फलते-फूलते स्थानीय अल्पसंख्यकों की परम्परागत कला के रूप में विख्यात हुई। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हथकरघा से कपड़ा बुनने की शुरूआत मऊ से ही हुई और धीरे-धीरे अन्य शहरों में फैलती गयी। मऊ में इसका प्रारम्भ 16वीं शताब्दी से माना जाता है। उस समय यहाँ तानसेन नामक बुनकर ने करघे पर बहुत ही सुन्दर कपड़े का उत्पादन किया था। धीरे-धीरे अन्य लोगों ने यह हुनर सीखा और आज तो यह यहाँ का गृह उद्योग है। नगर अथवा आस-पास के मुस्लिम परिवारों में शायद ही कोई ऐसा घर हो जिसमें आधुनिक शक्तिचालित करघा न लगा हो। एक अनुमान के अनुसार नगर में लगभग 85 हजार लूम चल रहे हैं। इसके अलावा कोपागंज, अदरी, पूराघाट, घोसी, मधुबन, मुहम्मदाबाद गोहना, खुरहट, खैराबाद, करहां, पिपरीडीह, बहादुरगंज, मुबारकपुर आदि क्षेत्रों को मिला दिया जाये तो लाखों करघे दिन-रात चलते हैं।
मऊ की बनी साडि़यों की देश-विदेश में अलग पहचान है। साडि़यों पर आकर्षक व कलात्मक कढ़ाई देखते ही बनती है। अपने आकर्षण के आगे बनारसी साडि़याँ का मुकाबला करने वाली साडि़याँ सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। साडि़यों के अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशों जैसे-असम, बंगाल महाराष्ट्र आदि के पारम्परिक परिधान भी यहाँ निर्मित होते है| उल्लेखनीय है कि 1957 में यहाँ आये प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू यहाँ की कला एवं वस्त्रोद्योग की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भारत का मैनचेस्टर कहा था। बहुत हद तक इस क्षेत्र के बुनकरों ने अपनी लगन व मेहनत से नेहरू जी के सपने को साकार किया। यहाँ की बहुसंख्य आबादी बुनाई का कार्य करती है। यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन भी है। इस कला के कारण ही यहाँ बेरोजगारी भी अपेक्षाकृत कम है तथा लोग खुशहाल भी है।
मऊनाथ भंजन के रघुनाथपुरा, मुंशीपुरा, खीरीबाग, कियारी टोला, भिखारीपुर, बुलाकीपुरा, पठानटोला, प्यारेपुरा, मिर्जाहादीपुरा, डोमनपुरा, इस्लामपुरा, जमालपुरा, मदनपुरा, मलिकताहिर पुरा, कासिमपुरा, हसनमखासानी, हट्ठीमदारी, मुगलपुरा, दक्षिण टोला, अलाउद्दीनपुरा, इमामगंज, हरिकेशपुरा आदि मुहल्ले बुनाई के साधन केन्द्र है।
मऊ का धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थल:
मऊ जनपद में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व के विभिन्न स्थल हैः-
घोसी-
तहसील मुख्यालय घोसी प्राचीनकाल में राजा नहुष की राजधानी के रूप में विख्यात थी। इस सम्बन्ध में अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य आज भी मौजूद हैै। नगर में आज कल जहाँ सिंचाई विभाग का निरीक्षण गृह है, उसे राजा नहुष के कोट के रूप में मान्यता है। राजा नहुष सतयुग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं की पीढ़ी में आते हैं। उनकी दानवीरता एवं शूरवीरता विख्यात थी, जिसके कारण उन्हें देवेन्द्र का पद प्राप्त हुआ था।
श्रीमद् देवीभागवत के छठे स्कन्ध के चैथे एवं पाँचवे अध्याय में यह उल्लेख मिलता है कि प्रतापी दैत्यराज वृत्रासुर का वध देवेन्द्र इन्द्र द्वारा छल से किया गया था। इसके कारण उन्हें ब्रह्म हत्या लगी थी। उस समय पुण्य प्रताप के कारण राजा नहुष को इन्द्र पद प्राप्त हुआ। इन्द्र बने राजा नहुष का मन इन्द्राणी शचि पर मोहित हो गया। माया से प्रेरित शची ने राजा नहुष से कहा कि देवराज इन्द्र मेरे पास ऐरावत हाथी एवं अनके प्रकार के विमानों पर सवार होकर आया करते थे आप जब महान ऋषियों के कन्धे पर ढोई जाने वाली पालकी पर आयेंगे तो मैं आपको स्वयंमेव प्राप्त हो जाऊँगी। कामांध नहुष ऋषियों द्वारा ढोई जाने वाली पालकी में बैठकर शची के पास जा रहे थे, शीघ्र पहुँचने की दृष्टि से वे लगातार ऋषियों को उत्प्रेरित करते रहे। कृषकाय ऋषि इस अपमान को बर्दास्त न कर सके और उन्होंने नहुष को सर्प योनि में उत्पन्न होने का श्राप दे दिया। शापग्रस्त नहुष को देवेन्द्र पद छोड़ना पड़ा और अनेक वर्षों तक सर्प योनि में रहना पड़ा।
कहा जाता है कि शापग्रस्त राजा नहुष सर्प के रूप में अपने किले में स्थित एक कुएँ में रहे, उस समय सरयू नदी उस किले के पास से बहती थी जो आज छोटी सरयू के रूप में जानी जाती है। शापग्रस्त नहुष नदी तट तक पानी पीने के लिए आते थे। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने शापग्रस्त नहुष का उद्धार किया। राजा नहुष का किला आज भी कोेट के रूप में विद्यमान है। इतिहासकारों के अनुसार यदि इस क्षेत्र की खुदाई करायी जाये तो कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आयेंगे।
वाराणसी-गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 29 के किनारे स्थित इस ऐतिहासिक नगर में सड़क के किनारे ही एक पोखरा है और वहाँ एक अतिप्राचीन शिव मन्दिर है। पोखरे के विषय में जनश्रुति है कि इसका निर्माण राजा नहुष ने ही कराया था। यह नृपति पुष्कर के रूप में जाना जाता था, जो कालान्तर में नर पोखरे और वर्तमान में नया सरोवर के रूप में जाना जाता है।
यहाँ एक गयासुर नाम का तालाब है। इसका महत्व गया पुण्यक्षेत्र में फाल्गु नदी तटपर स्थित विष्णुपद के बराबर माना जाता है। यहाँ पर श्रद्धालु पितृपक्ष में पिण्ड दान करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नहुष के शासन काल में गयासुर नामक राक्षस का बध इसी स्थल पर किया गया था।
देवलासः
जनपद का प्रमुख पौराणिक व ऐतिहासिक स्थल है। देवलास जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि महर्षि देवल की तपोभूमि रही है। महर्षि देवल ब्रह्मा के पाँच पुत्रों में सबसे छोटे थे। यहाँ प्रतिवर्ष ललही छठ पर विशाल मेला लगता हैै। बताते हैं कि भगवान राम ने यहाँ सूर्य देवता की उपासना करने के बाद अपने हाथों से सूर्य मन्दिर के निर्माण हेतु आधारशिला रखी थी। इस सूर्य मन्दिर का निर्माण तत्कालीन राजाओं ने कराया। सूर्य की मूर्ति, कलश अथवा अन्य मूर्तियाँ यहाँ खुदाई में प्राप्त हुई हैं। पूरे देश में पाँच स्थानों पर भगवान सूर्य का मन्दिर है। जिसमें से एक यहाँ देवलास धाम में अवस्थित है।
घोसी से मुहम्मदाबाद गोहना जाने वाली सड़क पर नदवासराय से आगे बढ़ने पर यहाँ मन्दिरों की श्रृंखला बरबस ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ प्रायः सभी जातियों के अपने अलग-अलग मन्दिर है किन्तु मन्दिर के द्वार सभी के लिए खुले हैं। पूजापाठ में किसी तरह का भेदभाव नहीं है। सभी मन्दिरों में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिस्थापित है। किवंदतियों के अनुसार भगवान राम के वनगमन के पहले पड़ाव का साक्षी देवलास ही था। अपनी वन यात्रा का पहला पड़ाव भगवान श्रीराम ने यहीं रखा था। उस समय तमसा नदी देवलास के पास ही बहा करती थी। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में इस बात का जिक्र किया है कि वन जाते समय भगवान श्रीराम ने प्रथम दिवस तमसा तट पर निवास किया था-
"बालक वृद्ध बिहाई गृह। लगे लोग सब साथ।। तमसा तीर निवासु किय। प्रथम दिवस रघुनाथ।।"
यहाँ स्थित हनुमान मन्दिर के ठीक सामने कलाकृतियों से सज्जित पत्थर का बहुत बड़ा चैखटा है। जिसके बारे में कहा जाता है कि यह विक्रमी संवत् प्रारम्भ करने वाले महाराजा विक्रमादित्य से सम्बन्धित है। जमीन में धंसे इस चैखट को खोदकर निकालने की अनेक कोशिशें हुई किन्तु दैवीय कारणों से आज तक कोई सफल नहीं हो सका। बताते हैं कि चैखट के नीचे प्रचुर मात्रा में हीरे-जवाहरात मौजूद है। यहाँ के अतिप्राचीन कूप की सफाई के लिए कई बार प्रयास हुआ किन्तु आज तक सफलता नहीं मिली। बताते हैं कि कुँए के अन्दर विभिन्न पात्रों में रत्न भरे हुए हैं।